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Monday, November 8, 2010

मेहंदीपुर के श्री बालाजी महाराज...


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा था जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मेरी कोई शक्ति इस धरा धाम पर अवतार लेकर भक्तों के दु:ख दूर करती है और धर्म की स्थापना करती है। अंजनी कुमार श्री बाला जी घाटा मेहंदीपुरमें प्रादुर्भाव इसी उद्देश्य से हुआ है। घाटा मेहंदीपुरमें भगवान महावीर बजरंगबली का प्रादुर्भाव वास्तव में इस युग का चमत्कार है। राजस्थान राज्य के दो जिलों सवाईमाधोपुरव दौसामें विभक्त घाटा मेहंदीपुरस्थान बड़ी लाइन बांदी कुईस्टेशन से जो कि दिल्ली, जयपुर, अजमेर अहमदाबाद लाइन पर 24मील की दूरी पर स्थित है। अब तो हिण्डौनआगरा, कानपुर, मथुरा, वृंदावन,दिल्ली जयपुर, अजमेर अहमदाबाद लाइन पर 24मील की दूरी पर स्थित है। अब तो हिण्डौनआगरा, कानपुर, मथुरा, वृन्दावन, दिल्ली आदि से जयपुर जाने वाली सभी बसें बालाजीमोड़ पर रुकती है। यहां तीनों देवों की प्रधानताहै। श्री बालाजीमहाराज श्री प्रेतराजसरकार और श्री कोतवाल (भैरव) यह तीन देव यहां आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। इनके प्रकट होने से लेकर अब तक बारह महंत इस स्थान पर सेवा पूजा कर चुके हैं जिनमें अब तक इस स्थान के दो महंत इस समय भी विद्यमान हैं। किसी शासक ने श्री बाला जी महाराज की मूर्ति को खोदने का प्रयत्‍‌न किया, सैकड़ों हाथ खोद देने के बाद भी जब मूर्ति के चरणों का अंत नहीं पाया तो वह हार मानकर चला गया। वास्तव में इस मूर्ति को अलग से किसी कलाकार ने गढ़कर नहीं बनाया है, अपितु यह तो पर्वत का ही अंग है।

यह समूचा पर्वत ही मानो उनका कनक मूधराकारशरीर है। इस मूर्ति के चरणों में एक छोटी सी कुडीथी जिसका जल कभी भी खत्म नहीं होता था, यह रहस्य है कि महाराज की बायीं छाती के नीचे एक बारीक जल धारा बहती रहती है, जो पर्याप्त चोला चढ़ जाने के बाद भी बन्द नहीं होती है। यहां की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मूर्ति के अतिरिक्त किसी व्यक्ति विशेष का कोई चमत्कार नहीं है। यहां प्रमुख है सेवा और भक्ति।

Monday, May 10, 2010

The River Narmada..


भारतीय संस्कृति में नर्मदा का विशेष महत्व है। जिस प्रकार उत्तर भारत में गंगा-यमुना की महिमा है, उसी तरह मध्य भारत में नर्मदा जन-जन की आस्था से जुडी हुई है। स्कंदपुराणके रेवाखंडमें नर्मदा के माहात्म्य और इसके तटवर्ती तीर्थो का वर्णन है। [अवतरण की कथा] स्कंदपुराणके रेवाखण्डके अनुसार, प्राचीनकाल में चंद्रवंश में हिरण्यतेजाएक प्रसिद्ध राजर्षि [ऋषितुल्य राजा] हुए। उन्होंने पितरोंकी मुक्ति और भूलोक के कल्याण के लिए नर्मदा को पृथ्वी पर लाने का निश्चय किया। राजर्षि ने कठोर तपस्या कर भगवान शंकर को प्रसन्न कर लिया। उनके तप से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें नर्मदा के पृथ्वी पर अवतरण का वरदान दे दिया। इसके बाद नर्मदा धरा पर पधारीं।


राजा हिरण्यतेजाने नर्मदा में विधिपूर्वक स्नान कर अपने पितरोंका तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान किया। यह कथा आदिकल्पके सत्ययुग की है, जबकि कुछ कथाओं में नर्मदा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय राजा पुरुकुत्सुको दिया जाता है। [आध्यात्मिक महत्व] पद्मपुराणके अनुसार, हरिद्वार में गंगा, कुरुक्षेत्र में सरस्वती और ब्रजमंडलमें यमुना पुण्यमयीहोती हैं, लेकिन नर्मदा हर जगह पुण्यदायिनीहै। मान्यता है कि सरस्वती का जल तीन दिन में, यमुना का एक सप्ताह में और गंगा का जल स्पर्श करते ही पवित्र कर देता है, लेकिन नर्मदा के जल का दर्शन करने मात्र से व्यक्ति पवित्र हो जाता है।
ऋषि-मुनि कहते हैं कि नर्मदा में स्नान करने, गोता लगाने, जल पीने, नर्मदा का स्मरण और नाम जपने से अनेक जन्मों का पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जहां नर्मदा भगवान शिव के मंदिर के समीप विद्यमान है [ओंकारेश्वर], वहां स्नान का फल एक लाख गंगा स्नान के बराबर होता है। इसके तट पर पूजन, हवन, यज्ञ, दान आदि शुभ कर्म करने पर उनसे कई गुना पुण्य उपलब्ध होता है। इसलिए नर्मदा सदा से तपस्वियों की प्रिय रही है। गंगा-यमुना की तरह नर्मदा को श्रद्धालु केवल नदी नहीं, बल्कि साक्षात देवी मानते हैं।
आस्तिकजनइन्हें नर्मदा माता कहकर संबोधित करते हैं। भक्तगण बडी श्रद्धा के साथ इनकी परिक्रमा करते हैं। आज के प्रदूषण-प्रधान युग में नर्मदा का जल अब भी अन्य नदियों की अपेक्षा ज्यादा स्वच्छ और निर्मल है। [साक्षात् शिव हैं नर्मदेश्वर] कहावत प्रसिद्ध है कि नर्मदा का हर कंकडशंकर। नर्मदा के पत्थर के शिवलिंगनर्मदेश्वर के नाम से लोकविख्यातहैं। शास्त्रों में नर्मदा में पाए जाने वाले नर्मदेश्वर को बाणलिंग भी कहा गया है। इसकी सबसे बडी विशेषता यह है कि नर्मदेश्वरको स्थापित करते समय इसमें प्राण-प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता नहीं पडती। नर्मदेश्वर[बाणलिंग] को साक्षात् शिव माना जाता है।

सनातन धर्म का सामान्य सिद्धांत है कि शिवलिंगपर चढाई गई सामग्री निर्माल्य होने के कारण अग्राह्य होती है। शिवलिंगपर चढाए गए फल-फूल, मिठाई आदि को ग्रहण नहीं किया जाता, लेकिन नर्मदेश्वर के संदर्भ में यह अपवाद है। शिवपुराणके अनुसार नर्मदेश्वर शिवलिंगपर चढाया गया भोग प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। नर्मदेश्वरको बिना किसी अनुष्ठान के सीधे पूजागृह में रखकर पूजन भी प्रारंभ किया जा सकता है।
कल्याण पत्रिका के अनुसार, वर्तमान विश्वेश्वर [काशी-विश्वनाथ] नर्मदेश्वरही हैं। यह गौरव केवल नर्मदा को ही है कि उसका हर कंकडशंकर के रूप में पूजा जाता है।

Saturday, November 14, 2009

नदी नहीं, पूरी संस्कृति है कावेरी


हर नदी की अपनी यात्रा और कहानी होती है, जिसमें कई रहस्य छिपे होते हैं। सुख-समृद्धि देने वाली नदी कावेरीका भी भारत की धर्म-संस्कृति, समाज-साहित्य आदि को बनाने और बढाने में विशेष योगदान है। कावेरीका उदगम दक्षिण भारत के कर्नाटक में दो पर्वत मालाएं हैं-पश्चिम और पूर्व, जिन्हें पश्चिमी और पूर्वी घाट के नाम से जाना और पुकारा जाता है। पश्चिमी घाट के उत्तरी भाग में एक बहुत ही सुंदर कुर्ग नामक स्थान है। इसी स्थान पर सहा नामक पर्वत है, जिसे ब्रह्माकपाल भी कहते हैं, जिसके कोने में एक छोटा-सा तालाब है। यही तालाब कावेरीनदी का उद्गम स्थल है। यहां देवी कावेरीकी मूर्ति है, जहां एक दीपक सदा जलता रहता है और नित्य पूजा भी होती है।

कुर्ग की पहाडियोंसे लेकर समुद्र तक की लंबी यात्रा में कावेरीका रूप कई बार बदलता है। कहीं यह पतली धारा की तरह हो जाती है, तो कहीं इसकी जलधाराएं सागर-सी दिखाई देती हैं। कभी यह सरलता से चुपचाप बहती है, तो कभी ऊंचाई से जलप्रपात के रूप में गिरती है। पचास से अधिक छोटी-बडी नदियां इसमें आकर मिलती हैं। समुद्र में विलीन होने से पहले कावेरीसे कई शाखाएं निकलती हैं और अलग-अलग नामों से अलग-अलग नदियों के रूप में बहती हैं।

कावेरीके तट पर दर्जनों बडे-बडे नगर और उपनगर बसे हैं। बीसियोंतीर्थ-स्थान हैं। अनगिनत प्राचीन मंदिर हैं और सैकडों कल-कारखाने भी इसके तट पर चल रहे हैं। इतना ही नहीं, लोगों को अन्न देने वाली कावेरीके जल का प्रयोग बिजली पैदा करने में भी होता है। कावेरीके पावन जल और तट ने देश को कई महान संत, कवि, राजा, रानी एवं प्रतापी वीर दिए हैं। इसी कारण कावेरीको तमिल भाषी माता कहकर पुकारते हैं। कावेरकी पुत्री तमिल भाषा में कावेरीको काविरि भी कहते हैं। काविरिका अर्थ है-उपवनों का विस्तार करने वाली। अपने जल से यह बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना देती है। इस कारण इसे काविरि कहते हैं। कावेरीका एक अर्थ है- कावेरकी पुत्री। कथा है कि राजा कवेरने इसे पुत्री की तरह पाला था, इस कारण इसका यह नाम पडा।

कावेरीको सहा-आमलक-तीर्थ और शंख-तीर्थ भी कहते हैं। ब्रह्मा ने शंख के कमंडल से आंवले के पेड की जड में विरजानदी का जल चढाया था। कहा जाता है कि वह जल इसके साथ मिलकर बहा, तो कावेरीके सहा आमलक तीर्थ या शंख तीर्थ नाम पडे। तमिल भाषा में कावेरीको प्यार से पोन्नी कहते हैं। पोन्नीका अर्थ है सोना उगाने वाली। कहा जाता है कि कावेरीके जल में सोने की धूल मिली हुई है। इस कारण इसका यह नाम पडा। वैष्णव और शैव मंदिर कावेरीके तट पर वैष्णवों का विख्यात मंदिर श्रीरंगम है, जो भगवान विष्णु का मंदिर है। इसके तट पर शैव धर्म के भी कई तीर्थ हैं। चिदंबरमका मंदिर कावेरीकी ही देन है। श्रीरंगमके पास बना हुआ जंबुकेश्वरमका प्राचीन मंदिर भी प्रसिद्ध है। तिरुवैयारु,कुंभकोणम,तंजावूरशीरकालआदि जैसे अनेक स्थान पर शिवजी के मंदिर कावेरीके तट पर बने हैं। तिरुचिरापल्लीशहर के बीच में एक ऊंचे टीले पर बना हुआ मातृभूतेश्वरका मंदिर और उसके चारों ओर का किला विख्यात है। रामायण रची कंबनने शैव और वैष्णव संप्रदाय के कितने ही आचार्य, संत और कवि कावेरीके तट पर हुए हैं। विख्यात वैष्णव आचार्य श्री रामानुज को आश्रय देनेवालाश्रीरंगपट्टनमका राजा विष्णुव‌र्द्धनथा। तिरुमंगैआलवरऔर कुछ अन्य वैष्णव संतों का जन्म कावेरी-तीरपर ही हुआ था। सोलह वर्ष की आयु में शैव धर्म का देश-भर में प्रचार करने वाले संत कवि ज्ञानसंबंधरका जन्म भी कावेरी-तटपर हुआ था। तमिल भाषा के कितने ही विख्यात कवि इसी नदी के किनारे पले-बढे।

महाकवि कंबनने तमिल भाषा में अपनी विख्यात रामायण की रचना इसी नदी के तट पर की थी। दक्षिण संगीत को नया प्राण देने वाले संत त्यागराज,श्यामा शास्त्री और मुत्तुदीक्षित इसी कावेरीतट के वासी थे। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि दक्षिण की संस्कृति कावेरीकी देन है। विदाई उत्सव कावेरीके उद्गम स्थान पर हर साल सावन के महीने में बडा उत्सव मनाया जाता है। इसे कावेरीकी विदाई का उत्सव कहा जाता है। कुर्गके सभी हिंदू लोग, विशेषकर स्त्रियां, इस उत्सव में बडी श्रद्धा के साथ भाग लेती हैं। इस दिन कावेरीकी मूर्ति की विशेष पूजा होती है। तलैकावेरी कहलाने वाले उद्गम-स्थान पर सब स्नान करते हैं।

स्नान करने के बाद प्रत्येक स्त्री कोई न कोई गहना, उपहार के रूप में इस तालाब में डालती है। इतिहास -कावेरी के तट पर तिरुवैयारुनामक स्थान पर पेशवाओंने जो संस्कृत विद्यालय स्थापित किया था, वह आज भी विद्यमान है।

-इसी तट पर चोल साम्राज्य बना और फैला।

-रिकालन के समय में समुद्र तट पर कावेरीके संगम-स्थल पर पुहारनामक विशाल बंदरगाह बना।

-यूनानी लोगों ने इस नगर को कबेरस नाम दिया था। यह कबेरस शब्द भी कावेरीशब्द से ही बना है।